1. परिचय: पौराणिक कथाओं और भारतीय दीवार चित्रकला का संगम
भारत की सांस्कृतिक विरासत में पौराणिक कथाएँ और लोक कलाएँ गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं। विशेष रूप से बंगाल और ओडिशा राज्यों में, इन दोनों का अद्भुत संगम दीवार चित्रकला के माध्यम से देखने को मिलता है। पौराणिक कथाएँ, जिनमें देवी-देवताओं, महापुरुषों और लोक नायकों की कहानियाँ शामिल हैं, भारतीय समाज की चेतना में सदियों से जीवित रही हैं। इन कथाओं ने न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को भी आकार दिया है। वहीं, दीवार चित्रकला एक ऐसी परंपरा रही है जो आम जनमानस की भावनाओं, मान्यताओं और दैनिक जीवन को दर्शाती है। बंगाल की पटचित्र कला और ओडिशा की पीठा चित्र तथा साहित्य दीवार चित्र शैलियाँ स्थानीय संस्कृति, मिथकों और ऐतिहासिक घटनाओं को रंगों और आकृतियों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं। इस प्रकार, ये चित्रकलाएँ न सिर्फ सौंदर्यबोध का प्रतीक हैं बल्कि वे पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान और लोकविश्वास को संरक्षित करने का माध्यम भी बनती हैं। इस लेख में हम इन दोनों क्षेत्रों की दीवार चित्रकला में पौराणिक कथाओं के विविध चित्रणों तथा उनकी सांस्कृतिक महत्ता पर चर्चा करेंगे।
2. बंगाली दीवार चित्रकला में पौराणिक कथाओं का चित्रण
बंगाल की पारंपरिक चित्रकला विधाएँ
बंगाल की दीवार चित्रकला परंपरा अत्यंत समृद्ध है, जिसमें पटचित्र और कालीघाट पट जैसी कलात्मक विधाएँ प्रमुख हैं। ये चित्रकला न केवल सजावटी होती हैं, बल्कि सामाजिक और धार्मिक संदेशों का भी संप्रेषण करती हैं। बंगाली लोककला में पौराणिक कथाओं, विशेषकर रामायण, महाभारत, मंगलकाव्य और क्षेत्रीय देवी-देवताओं के जीवन प्रसंगों को अनूठे रूप में दर्शाया जाता है।
पौराणिक कथाओं के चित्रण की शैली
पटचित्र में कथानक को पट्टे (कपड़े या कागज) पर क्रमशः कई खंडों में चित्रित किया जाता है। पारंपरिक कलाकार (पटुआ) दृश्य को सरल रेखाओं, जीवंत रंगों और प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। कथा का हर दृश्य एक अलग बॉक्स या फ्रेम में दर्शाया जाता है, जिससे कहानी प्रवाहमान रहती है। महाभारत के युद्ध दृश्य, रामायण के वनवास और दुर्गा पूजा जैसे प्रसंग आमतौर पर देखे जा सकते हैं।
रंगों और प्रतीकों की भूमिका
| रंग | अर्थ/प्रतीक |
|---|---|
| लाल | ऊर्जा, शक्ति, देवी दुर्गा का आह्वान |
| पीला/गेरुआ | पवित्रता, भक्ति, साधु-संतों की छवि |
| हरा | प्राकृतिक परिवेश, जीवन का प्रतीक |
| नीला | भगवान कृष्ण या विष्णु का दैवीय स्वरूप |
इसके अतिरिक्त, दीवार चित्रों में कमल, शंख, मछली और पक्षियों के प्रतीकों का भरपूर उपयोग होता है जो बंगाल की सांस्कृतिक विशेषताओं को दर्शाते हैं। हर प्रतीक अपने आप में कोई न कोई पौराणिक या धार्मिक अर्थ लिए रहता है।
स्थानीय विशिष्टता और सामाजिक सन्दर्भ
बंगाली दीवार चित्रकला गाँव-समाज की सामूहिक स्मृति का हिस्सा रही है। ये चित्र न केवल धार्मिक आस्था को सुदृढ़ करते हैं, बल्कि लोकजीवन की घटनाओं तथा सामाजिक विषयों जैसे कि विवाह, कृषि उत्सव और ग्राम्य जीवन के दृश्यों को भी सम्मिलित करते हैं। आज भी पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्रों में दीवारों पर यह कला जीवित है और त्योहारों अथवा धार्मिक अनुष्ठानों के समय इसका विशेष महत्व रहता है।

3. ओडिया दीवार चित्रकला में धर्म और पौराणिकता
ओडिशा की दीवार चित्रकला की सांस्कृतिक विरासत
ओडिशा की दीवार चित्रकला, विशेष रूप से पाटचित्र और झौलीचित्र, क्षेत्रीय परंपराओं और आध्यात्मिक आस्थाओं का अद्भुत मिश्रण प्रस्तुत करती है। ये चित्रकलाएं न केवल धार्मिक अनुष्ठानों के हिस्से के रूप में उभरीं, बल्कि समाज के नैतिक मूल्यों, मिथकों और लोक कथाओं को भी उजागर करती हैं। ओडिया संस्कृति में दीवारों पर चित्रित देवी-देवताओं की छवियां घर और मंदिर दोनों में शुभता का प्रतीक मानी जाती हैं।
जगन्नाथ संस्कृति का प्रभाव
ओडिशा की सबसे विशिष्ट धार्मिक धरोहर ‘जगन्नाथ संस्कृति’ है। जगन्नाथ मंदिर पुरी के महोत्सव और रथयात्रा जैसे अवसरों पर, पाटचित्र कला में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रूपों का जीवंत चित्रण किया जाता है। ये चित्रकलाएं न केवल धार्मिक श्रद्धा को दर्शाती हैं, बल्कि ओडिया समाज के एकीकरण और सामूहिक पहचान का भी केंद्र बनती हैं।
पुराणों एवं स्थानीय देवी-देवताओं की छवियां
ओडिया दीवार चित्रकला में पुराणों से ली गई कहानियों और स्थानीय देवी-देवताओं जैसे मां तारिणी, मां सम्बलेश्वरी तथा अन्य ग्राम्य देवियों की मनोहारी छवियां देखने को मिलती हैं। इन चित्रों के माध्यम से लोककथाएं एवं धार्मिक आख्यान जन-मानस तक सहजता से पहुँचते हैं। साथ ही, इन कलाकृतियों में प्राकृतिक रंगों एवं पारंपरिक तकनीकों का उपयोग स्थानीय जीवनशैली और पर्यावरण के प्रति सम्मान को भी दर्शाता है। ओडिया समाज में ये चित्रकलाएं सांस्कृतिक शिक्षा और धार्मिक चेतना बढ़ाने का कार्य करती हैं।
4. स्थानीय जीवन और रीति-रिवाजों का प्रभाव
बंगाली और ओडिया दीवार चित्रकला में पौराणिक कथाओं का चित्रण केवल धार्मिक मान्यताओं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें स्थानीय समाज की परंपराएँ, त्यौहार और ग्रामीण जीवन भी गहराई से जुड़ा हुआ है। इन क्षेत्रों की सांस्कृतिक विविधता तथा सामाजिक संरचना ने चित्रकला के रूपों को विशिष्ट बनाया है। बंगाल और ओडिशा की पारंपरिक दीवार चित्रकलाएँ जैसे कि पटचित्र (Bengali Patachitra) और झोटी-चिता (Odia Jhoti-Chita) में न केवल देवी-देवताओं के प्रसंग मिलते हैं, बल्कि खेतिहर जीवन, लोककथाएँ, और मौसमी उत्सवों की झलक भी देखी जा सकती है।
परंपराओं का चित्रकला पर प्रभाव
प्रत्येक गांव या समुदाय की अपनी विशिष्ट परंपराएँ होती हैं, जो दीवार चित्रों में रंगों, आकृतियों और विषयवस्तु के चयन में दिखाई देती हैं। उदाहरण स्वरूप:
| क्षेत्र | मुख्य त्योहार/परंपरा | चित्रण में प्रभाव |
|---|---|---|
| बंगाल | दुर्गा पूजा, काली पूजा | माँ दुर्गा के विजय दृश्य, महिषासुर मर्दिनी की छवियाँ, उत्सव के रंगीन मंडप |
| ओडिशा | रथ यात्रा, नवाखाई | जगन्नाथ भगवान का रथ, ग्रामीण फसल उत्सव, पारंपरिक झोती अलंकरण |
ग्रामीण जीवन की झलक
ग्रामीण जीवन की दैनिक गतिविधियाँ—जैसे बुआई, कटाई, नदी किनारे स्नान, या लोकनृत्य—को भी इन चित्रों में जीवंत रूप से दर्शाया जाता है। यह दर्शाता है कि पौराणिक कथाओं का प्रस्तुतीकरण केवल ऐतिहासिक संदर्भ नहीं है, बल्कि यह जीवंत समाज का हिस्सा है। कई बार महिलाएँ अपने घरों की दीवारों पर विशेष अवसरों पर प्रतीकात्मक आकृतियाँ बनाती हैं जिन्हें शुभ माना जाता है।
स्थानीय भाषा और प्रतीकों का उपयोग
दीवार चित्रकला में स्थानीय भाषाओं—जैसे बंगाली या ओडिया—के शब्द, मंत्र एवं कहावतें भी शामिल होती हैं। यह न केवल धार्मिक भावना को प्रबल करता है बल्कि सांस्कृतिक पहचान को भी मजबूत बनाता है। प्रतीकों में मछली (समृद्धि), आम्रपत्र (शुभता), शंख (पवित्रता) आदि का प्रयोग विशेष रूप से देखा जाता है। इस प्रकार, बंगाली और ओडिया समाज की परंपराएँ तथा रीति-रिवाज इनके पौराणिक चित्रण को अद्वितीय स्थानीय रंग प्रदान करते हैं।
5. सामाजिक संवाद और संरक्षण की आवश्यकता
बंगाली और ओडिया दीवार चित्रकला पौराणिक कथाओं को केवल चित्रित करने तक सीमित नहीं रहती, बल्कि यह समाज में संवाद का एक महत्वपूर्ण माध्यम भी बनती है। इन चित्रों के माध्यम से सांस्कृतिक मूल्य, नैतिक शिक्षा और सामाजिक संदेश पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होते रहे हैं। गाँवों की गलियों, मंदिरों की दीवारों तथा घरों के प्रवेशद्वार पर बनी ये कलाकृतियाँ लोगों के आपसी संवाद, सामूहिक स्मृति और सांस्कृतिक पहचान को मजबूती प्रदान करती हैं।
समाज में आए बदलाव और शहरीकरण की तेज़ रफ्तार ने इन पारंपरिक कलाओं के अस्तित्व पर चुनौती खड़ी कर दी है। आजकल आधुनिक रंगों, डिज़ाइनों और डिजिटल मीडिया के प्रभाव के कारण पारंपरिक दीवार चित्रकला पिछड़ने लगी है। इसके अलावा, स्थानीय कलाकारों को उचित मंच व संरक्षण न मिलना भी चिंता का विषय है।
इन चुनौतियों का सामना करने के लिए आवश्यक है कि स्थानीय प्रशासन, सांस्कृतिक संगठन और आमजन मिलकर संरक्षण की दिशा में प्रयास करें। स्कूल स्तर पर इस कला के महत्व को पढ़ाया जाए, सार्वजनिक स्थलों पर इन्हें प्रोत्साहित किया जाए और नए कलाकारों को प्रशिक्षण दिया जाए। साथ ही, सोशल मीडिया व डिजिटलीकरण के युग में इन कलाओं का प्रचार-प्रसार भी आवश्यक हो गया है ताकि युवा पीढ़ी अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ी रहे।
इस प्रकार, बंगाली और ओडिया दीवार चित्रकला न केवल पौराणिक कथाओं का जीवंत दस्तावेज़ है, बल्कि यह समाज में संवाद स्थापित करने और सांस्कृतिक संरक्षण हेतु सतत प्रयास की आवश्यकता को भी दर्शाती है।
6. निष्कर्ष: सांस्कृतिक विरासत का भविष्य
बंगाली और ओडिया दीवार चित्रकला, भारत की पौराणिक कथाओं का जीवंत चित्रण प्रस्तुत करती है। इन चित्रकलाओं ने न केवल क्षेत्रीय सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया है, बल्कि स्थानीय समुदायों में पारंपरिक ज्ञान और सामाजिक मूल्यों का संचार भी किया है। आज के बदलते समाज में, जब शहरीकरण और वैश्वीकरण जैसी चुनौतियाँ सामने आ रही हैं, तब इन पारंपरिक कलाओं की प्रासंगिकता पर पुनः विचार आवश्यक हो गया है।
आधुनिक संदर्भ में, बंगाली एवं ओडिया दीवार चित्रकला ने अपनी जड़ों को बनाए रखते हुए नए रूप व माध्यम अपनाए हैं। डिजिटल मीडिया, प्रदर्शनी और सांस्कृतिक पर्यटन के माध्यम से इन्हें नई पहचान मिल रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में दीवार चित्रकला अब भी त्योहारों और सामाजिक अवसरों पर प्रमुख भूमिका निभाती है; वहीं शहरी कलाकार इन्हें आधुनिकता के साथ जोड़कर नए प्रयोग कर रहे हैं।
इन कलाओं के संरक्षण हेतु सरकारी योजनाएँ, गैर-सरकारी संगठनों की पहलें तथा स्थानीय युवाओं की भागीदारी महत्वपूर्ण साबित हो रही है। स्कूलों व विश्वविद्यालयों में पारंपरिक कला शिक्षण कार्यक्रम इन चित्रकलाओं को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। इससे न केवल सांस्कृतिक उत्तराधिकार सुरक्षित होता है, बल्कि आर्थिक अवसर भी उत्पन्न होते हैं।
भविष्य की दृष्टि से देखा जाए तो बंगाली और ओडिया दीवार चित्रकला के लिए एक संतुलित रास्ता जरूरी है—जिसमें परंपरा और नवाचार दोनों का समावेश हो। पौराणिक कथाओं के साथ-साथ सामाजिक बदलावों को दर्शाते हुए यह कला निरंतर विकसित होती रहेगी। यदि स्थानीय समुदायों का सहयोग, तकनीकी नवाचार और बाजार की मांग जुड़ी रहे तो ये चित्रकलाएँ आने वाले समय में भी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर की अमूल्य संपदा बनी रहेंगी।

